ग़ज़ल
इ़बादत हो रही है ऑन लाइन।
मुह़ब्बत हो रही है ऑन लाइन।
कई चैनल हैं जिनपर देखिए तो।
हिदायत हो रही है ऑन लाइन।
लगे दिल ऑफ़ लाइन कैसे जब के।
ज़़राफ़त हो रही है ऑन लाइन।
किसी का नाम है फ़ोटो किसा का।
यह ह़रकत हो रही है ऑन लाइन।
जो थे पर्दानशीं उनकी भी सबको।
ज़ियारत हो रही है ऑन लाइन।
मियाँ अब तो ज़रा सी चीज़ की भी।
तिजारत हो रही है ऑन लाइन।
निज़ामत ही नहीं बज़्म ए सुख़न की।
सिदारत हो रही है ऑन लाइन।
किसी की है ग़ज़ल मकता किसी का।
यह सनअ़त हो रही है ऑन लाइन।
नहीं सुनता जो थानेदार कोई।
शिकायत हो रही है ऑन लाइन।
ह़क़ीक़त क्या है रब ही जानता है।
शराफ़त हो रही है ऑन लाइन।
सिलो है नेट या डाउन है सरवर।
ये दिक़क़त हो रही है ऑन लाइन।
मुरीदों की फ़राज़ अब पीर से भी।
के बेअ़त हो रही है ऑन लाइन।
फ़राज़ अब तो मरीज़ों की भी हर दिन।
अ़यादत हो रही है ऑन लाइन।
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online generation |
post 02
क्यूँ नज़र आती नहीं प्यार की महफ़िल कोई
क्यूँ नहीं होता मेरे दर्द में शामिल कोई
चाँद के चेहरे पे भी दाग़ नज़र आता है
हुस्न का तेरे नहीं यार मुक़ाबिल कोई
मेरी आँखों ने इजाज़त नहीं दी आने की
चोर दरवाज़े से दिल में हुआ दाख़िल कोई
मैंने माना कि अमावस में क़मर बुझता है
क्यूँ मगर तारों में दिखती नहीं झिलमिल कोई
यूँ तो साग़र में जज़ीरे भी बहुत होते हैं
बीच साग़र भी मिला मुझको न साहिल कोई
उसके ज़ख़्मों में क़यामत की कशिश है यारो
वर्ना मरहम को न तड़पाता यूँ बिस्मिल कोई
उसको अहसास मेरे दर्द का होगा शायद
ख़ुदकशी यूँ ही नहीं करता है क़ातिल कोई
ख़ुद रक़ीबों से उसे मैंने ही मिलवाया था
इश्क़ में ऐसा कहाँ होता है ग़ाफ़िल कोई
क़त्ल करके वो गये दूर निगाहों से मगर
मेरी नज़रों से नहीं बचता है क़ातिल कोई
ज़िन्दगी ही तो सिखाती है सही बातें सब
कुछ किताबों से नहीं बनता है फ़ाज़िल कोई
बन के पत्थर पे लकीर आती है हर बात उनकी
कैसे इनकार करे उनको अब आमिल कोई
मैंने मुंसिफ़ भी तुम्ही को ही फ़क़त माना है
और तुम सा है कहाँ शाहे - मुकम्मिल कोई
दिल को देकर तो फ़क़त दर्द मिला है मुझको
इस मुहब्बत का नहीं दुनिया में हासिल कोई
रोज़ कहता है मेरा दिल कि वो आएंगे कल
मेरे दिल सा भी कहाँ है यहाँ बातिल कोई
उससे क्या प्यार की उम्मीद रखें हम 'ख़ामोश'
जिसने देखा ही नहीं दिल की तरह दिल कोई
बहर: 2122 1122 1122 22
- क़मर - चाँद
- जज़ीरे - द्वीप
- बिस्मिल - ज़ख़्मी
- बातिल - झूठा
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