मैं फ़र्द हूँ एक आम सा
मैं फ़र्द हूँ एक आम सा
एक क़िस्सा-ए-ना तमाम सा,
ना लहजा बेमिसाल है
ना बात में कमाल है
हूँ देखने में आम सा
उदासियों की शाम सा
जैसे एक राज़ हूँ
ख़ुद से बे-नियाज़ हूँ
ना मह-जबीनों से रब्त है
ना शौहरतों से ज़ब्त है
रांझा, ना क़ैस हूँ
इन्शाअ, ना ही फ़ैज़ हूँ
मैं पैकरे इख़्लास हूँ
वफ़ा, दुआ और आस हूँ
मैं शख़्स ख़ुद शनास हूँ,
तुम करो यह फ़ैसला,
मैं फ़र्द हूँ आम सा ?
या बहुत ही ख़ास हूँ..???
- फ़र्द = अकेला, बेजोड़, एक व्यक्ति
- क़िस्सा-ए-ना तमाम = कभी ना ख़त्म होने वाली कहानी
- बे-नियाज़ = निस्पृह.. बे-ज़रूरत
- मह-जबीनों = सुंदर स्त्री, चाँद जैसी माथे वाली
- रब्त = संबंध, तअल्लुक़
- ज़ब्त = दबाया हुआ
- रांझा, क़ैस = प्रेमी
- इन्शाअ, फ़ैज़ = कवि,शायर
- पैकरे इख़्लास = निःस्वार्थता की मूर्ति
- ख़ुद शनास = स्वयं का पारखी,
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- बराए मशवरा
तमाशा जो बना है मुफलिसी का
जमाना फूकँता है घर उसी का
जहां मैं काम औरो के भी आओ
दीया भी एक जलाओ रोशनी का
जबां से जो नहीं सच बोल सकते
तो क्या मतलब है उन की बंदगी का
लुटा देते हैं दौलत दूसरों पे
खुदा भी साथ देता है उसी का
नहीं इंन्सा को ये इंन्सा से चाहत
जमाना है दीवाना जर जमीं का
यहां मतलब से सब को अपने मतलब
नहीं है यार कोई भी किसी का
हसीं औरों के लब पे तू सजा दे
इमानी क्या भरोसा जिंदगी का
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