रात -सा चुपचाप खोया खोया सा भी है रंज ओ ग़म में ख़ूब मुब्तला है आदमी

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एक दिल की शायरी

रात -सा चुपचाप खोया खोया सा भी है रंज ओ ग़म में ख़ूब मुब्तला है आदमी


 आज चारदीवारी  में  कैद  है  आदमी 

ख़ूब अपने आप में फँस गया है आदमी 


रात -सा चुपचाप खोया खोया सा भी है 

रंज ओ ग़म में ख़ूब  मुब्तला  है  आदमी 


शताब्दी  औ  बरसों  की  ये  बात  नहीं  है 

इक लम्बा-सा चलता सिलसिला है आदमी 


पतझड़ों की मार को भी है झेलता  रहा 

हर बार खिलखिलाता ही रहा है आदमी


सहमा सा डरा सा रहता है  ये हर  घड़ी 

फिर फिर खड़ा होता तूफानी है आदमी 


ऋषि भी, मुनि भी फ़कीर घूमता भी यही है

जीवन का लम्बा इक  फ़लसफ़ा  है आदमी 


अकेला ही सफ़र शुरू होता है  सभी का 

आदमी को मग में मिल जाता है आदमी


हर बाप बेटे से  परेशान  है  यहाँ  पर 

बाहर शेर, औ घर में गीदड़ है आदमी 


नफ़रत से कभी तो स्नेह से कभी मरा 

हर बार ज़िंदा उठ खड़ा हुआ है आदमी


बीवी से जीता, बताये नाम वो अपना 

 

हम भी ज़रा देखें वो कैसा है आदमी


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