मां क्या गई कि साथ में बरकत चली गई दिल का सुकून रूह की राहत चली गई

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एक दिल की शायरी

मां क्या गई कि साथ में बरकत चली गई दिल का सुकून रूह की राहत चली गई

 आदाब, कई बार ऐसा होता है कि शाइरी करना चाहें तो शे'र नहीं होते और कई बार ख़यालों में खो जाने पर ख़ुदा पूरी ग़ज़ल अ़ता कर देता है। मेहरबान मां को याद कर रहा था तो हो गया कलाम :-


ग़ज़ल


मां  क्या  गई  कि साथ में बरकत चली गई

दिल  का  सुकून  रूह  की  राहत चली गई


मेरा   वो   हौसला  मेरी  हिम्मत  चली  गई

रोऊं  न  क्यों  भला  मेरी  ताक़त चली गई


खुलते ही आंख अब नहीं आती कहीं नज़र 

आंखों   से  दूर  चांद  सी  सूरत  चली  गई 


मांगेगा  कौन  हक़ में मेरे अब उठा के हाथ 

देती  थी  जो  दुआओं  की दौलत चली गई 


सीने  पे  रख  के  हाथ  कहा  सब्र कर मुझे 

मां  मुझसे  छीन कर मेरी ख़िदमत चली गई 


उसकी नमाज़ें उसकी तिलावत कहां है अब 

साथ  उसके  उसकी सारी इबादत चली गई 


फ़ज़्ले-ख़ुदा  से  पास  जो रहती थी हर घड़ी 

आई  क़ज़ा  तो  रब  की वो नै'मत चली गई 


आंखें बरसती रहती हैं अब घर को देख कर 

घर  रह  गया  है  घर  वो  ज़ीनत  चली  गई 


आया जो वक़्त जाने का सबको मिला दिया 

दिल  से  भूला के अपने शिकायत चली गई 


सर को पकड़ के रोऊं न क्यों मैं भला "वली" 

मुझको  जो  छोड़ कर  मेरी जन्नत चली गई 

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